मैं ‘तुम’ होना चाहती हूं प्रिये,
किंतु स्वार्थवश नहीं, प्रेमवश
माना मैंने नादानी की, अब इतना ना रूठो
कभी आकर देख तो लो
कि
किस कदर तुम्हारा प्रेम मेरे
अस्तित्व पर आवृत है
कि
मैं क्यों तुम्हारी बांहों में
बेसुध होकर पड़ी रहना चाहती हूं
क्या करूं कि मेरा तनमन
पर काबू रहा नहीं
मेरे होंठ, नयन, मस्तक
कुछ भी तो मेरे नहीं
सब तुम्हारे हो चुके हैं
रोम-रोम खोया रहता है तुममें
कि
तुम्हारे स्पर्श के सागर में आप्लावित हैं सब
रिक्त हो गया है मेरा तनमन
जैसे उसे मेरा होने में सुख नहीं
वो तो तुममें, तुम्हारी बांहों में चरम सुख पाता है
हां मैंने नादानी की, पर इतना खिन्न ना हो
अच्छा चलो हो जाओ, क्योंकि कुछ देर की खिन्नता के बाद
जब तुम पास आकर मुझे बांहों में कस लेते हो
तो इतना सुख पाकर बरस उठते हैं मेरे नयन
उसकी वर्षा तो सावन की बूंदों से भी ज्यादा सुख देती है
तो मैं नादान करूंगी, क्योंकि यह प्रेमवश है, स्वार्थवश नहीं
रजनीश आनंद
14-09-16
किंतु स्वार्थवश नहीं, प्रेमवश
माना मैंने नादानी की, अब इतना ना रूठो
कभी आकर देख तो लो
कि
किस कदर तुम्हारा प्रेम मेरे
अस्तित्व पर आवृत है
कि
मैं क्यों तुम्हारी बांहों में
बेसुध होकर पड़ी रहना चाहती हूं
क्या करूं कि मेरा तनमन
पर काबू रहा नहीं
मेरे होंठ, नयन, मस्तक
कुछ भी तो मेरे नहीं
सब तुम्हारे हो चुके हैं
रोम-रोम खोया रहता है तुममें
कि
तुम्हारे स्पर्श के सागर में आप्लावित हैं सब
रिक्त हो गया है मेरा तनमन
जैसे उसे मेरा होने में सुख नहीं
वो तो तुममें, तुम्हारी बांहों में चरम सुख पाता है
हां मैंने नादानी की, पर इतना खिन्न ना हो
अच्छा चलो हो जाओ, क्योंकि कुछ देर की खिन्नता के बाद
जब तुम पास आकर मुझे बांहों में कस लेते हो
तो इतना सुख पाकर बरस उठते हैं मेरे नयन
उसकी वर्षा तो सावन की बूंदों से भी ज्यादा सुख देती है
तो मैं नादान करूंगी, क्योंकि यह प्रेमवश है, स्वार्थवश नहीं
रजनीश आनंद
14-09-16
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