रविवार, 18 सितंबर 2016

...क्योंकि मुझे चाह है तुम्हारी

सोचती हूं कहूं, ना कहूं
स्त्री हूं, लाज आड़े आती है
लेकिन मन मानता नहीं
वो तो कहने को बेचैन है
मुख को तो नियंत्रित कर लेती हूं
किंतु इन नयनों का क्या करूं मैं
ये चुप नहीं रहतीं, ज्यादा लगाम कसती हूं
तो, बरस पड़ती हैं
उस अश्रुधार में बह जाती है, लाज
और मुख से निकल पड़ते हैं ये शब्द
हां, मुझे चाह है तुम्हारी
मेरे तनमन के हर कतरे पर
लिखा है तुम्हारा नाम
जबतक सांस चलेगी
संजोए रखूंगी उस नाम को
संभव नहीं किसी के लिए
मिटाना उस नाम को
अमर है हमारा प्रेम का रिश्ता
क्योंकि हर पल-हर दिन
मुझे चाह है तुम्हारी
रजनीश आनंद
19-09-16

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