मंगलवार, 6 सितंबर 2016

एकांत में हम-तुम

जानते हो तुम क्यों
रात घिरते मैं सबकुछ छोड़
एकांत में आकर बैठ जाती हूं
नहीं ना? तो सुनो प्रिये
जब मैं अकेली होती हूं ना
तो मुझे भान होता है
जैसे साथ हो तुम
मैं अपने लंबे केश खोल
आइने में खुद को निहारती हूं
तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे
मेरे केश नहीं तुम हो
जिसने पास आकर जकड़ लिया हो मुझे
मैं सिमटती जाती हूं तुममें
पृथक अस्तित्व की चाह नहीं बचती
जी करता है खो जाऊं तुममें
सिर्फ मैं और तुम
लेकिन क्षणिक होते हैं ये पल
मैं चाहकर भी तुम्हें रोक नहीं पाती
और आइने से गायब होता जाता है तुम्हारा प्रतिबिंब
शेष रह जाता है तो एकांत और तुम्हारा मादक स्पर्श
रजनीश आनंद
05-09-16

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें