शनिवार, 6 अगस्त 2016

आस में तुम्हारे प्रेम के...

आस में तुम्हारे प्रेम के
रोज रात को खिड़की से
निहारती हूं मैं चांद को
लेकिन पूर्णिमा तो रोज होती नहीं
तो जैसे टुकड़ों-टुकड़ों में
नजर आता है चांद
वैसे ही मिलता है
मुझे प्रेम तुम्हारा
कभी तो स्याह रात भी
जब रिसता है दर्द
और ललक उठता है मन
तुम्हारे आलिंगन को
लेकिन प्रारब्ध ने लिखी है
खामोशी, मेरी रातों के नाम
बेआवाज हैं, कलाइयों की चूड़िया
मचलती तो हैं, लेकिन फिर
जज्ब करती है, अरमानों को
चाहत तो है कि
एक बार तुम अपनी
अंगुलियों से छेड़ दो इन्हें
ताकि सुधबुध खोकर
गुम हो जायें ये तुम में
और कहे मेरे मांग का सिंदूर
मैं तुम्हारी प्रेम दीवानी
रजनीश आनंद
06-08-16

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