सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

भूख

रसोई के खाली डिब्बों को
टटोलती-खंगालती मैं
कि मिल जाए दो मुट्ठी
अनाज के दाने,ताकि
मिटा सकूं भूख की आग
जो भड़क रही थी तुम्हारे बच्चे की पेट में
हर खाली डिब्बे का ढक्कन खोलते ही
मेरे अंदर भी बन रही थी एक रिक्तता
रिस रहा था एक दर्द अपनी अपूर्णता का
क्या भूख को बस में करना संभव नहीं?
क्या मैं इतनी बेबस हो गयी हूं
भूख के साथ जंग में मैं
हथियार डालना नहीं चाहती थी
मिले ज्योंही अनाज के दाने
मैं भागी उसे सिझाने
उम्मीद के चूल्हे पर
चढ़ा दी जोश की हांड़ी
चावल तो एक मुट्ठी ही मिली थी
लेकिन कुछ कोमल पत्तों को
चावल के साथ उबाल बना लिया था 
भूख शांत करने योग्य खाद्य
जिसकी मदद से तुम्हारे बच्चे की
भूख तो शांत कर दी थी मैंने
लेकिन तुम्हारी ना कर पायी
क्योंकि वो भूख पेट की ना थी
उसे तो चाहिए था मेरा मांसल तन
उसे कोई सरोकार ना था मेरी जद्दोहद से
मेरी ना सुनकर तुम्हारे चेहरे पर
उभरे थे तिरस्कार के भाव
जिसे झेलना बनती जा रही थी मेरी नियति
क्योंकि मैं एक औरत हूं
जिसका कर्तव्य ही है भूख मिटाना
फिर चाहे वो भूख किसी भी प्रकृति की हो
लेकिन बस अब और नहीं
मैं नहीं बनने दूंगी, इसे अपनी नियति
क्योंकि जीने का, हंसने का
हक मैं खोना नहीं चाहती...

रजनीश आनंद
13-02-17

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