शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

एक द्वंद्व सुबह-शाम

एक द्वंद्व सुबह -शाम,
चला मेरे मन में आज
क्या जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है?
आफिस की सीढ़यों को गिनते हुए
जब मैं पहुंची अपने कमरे तक
कई पुरानी यादें मेरीे मानसपटल पर छा गयीं
बचपन से आजतक टूटें कई सपने मेरे
टूटे हुए खिलौनों की कसक
अब भी हैै मन में बाकी
वे खिलौने पूछते हैं मुझसे
क्या जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं?
कंप्यूटर के की-बोर्ड को दिनभर खड़खड़ती मैं
खबरों को लिखती -सुधारती मैं
कहीं सदन में मारपीट, कहीं आतंकी हमला
किसी अभिनेत्री का यौन शोषण,
तो किसी नये खिलाड़ी का उद्भव
द्वंद्व फिर उभरा क्या जीवन में
कुछ भी स्थायी नहीं है?
बचपन की दहलीज लांघ
कुछ रिश्ते थे जोड़े मैंने
क्षण भर का साथ निभा पुख्ता कर गये
वे रिश्ते कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है
लोगों ने भी दिये सबूत,विश्वास दिलाया मुझे
लेकिन सारे दावों को नकारती
मैं खड़ी हूं अपने विश्वास के साथ कि
प्रेम स्थायी है और यह हमेशा रहेगा कायम
मेरे जीवन के बाद भी,
मेरे इस विश्वास को प्राप्त है
आशीष शिवालय का भी
खड़ी हूं तुम्हारे सामने मैं इस दावे के साथ
आजीवन कायम रहेगा
प्रेम मेरा और तुम्हारा
इस विश्वास को दिल में समेट
मैं चल पड़ी थी घर की ओर
दरवाजा जो मैंने खटखटाया
मेरी जिंदगी ने बांह पसार कर बुलाया
असमंजस में जो लिपट गयी सीने से उसके
धड़कनों की बेचैनी समझ
उसने पूछा क्या हुआ माँ?
सवाल पर उसके थिरक गयी
मुस्कान मेरे चेहरे पर
विश्वास हुआ मजबूत
जीवन में प्रेम हमेशा होता है स्थायी
तब ही तो वह बिन बोले
समझ लेता है दिल की बात
दिल ने मजबूती से कहा मुझसे
प्रेम मेरा-तुम्हारा सच्चा है, बाकी सब बेमानी...
रजनीश आनंद
18-02-17


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