बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

जीवन की धुरी

घड़ी की सुइयों से जुड़ गया है
कुछ ऐसा नाता कि 
कभी-कभी मालूम होता है
जैसे मैं खुद घड़ी की सुई
बन घूम रही हूं उसकी धुरी पर
सुबह के पांच बजते ही 
घड़ी का अलार्म कानों में 
कहता है बस , अब और नहीं
बिस्तर को नहीं है तुम्हारी जरूरत
उठो कि कई काम है तुम्हें निपटाने
ब्रश को हाथ में पकड़े-पकड़े
मैं कर लेती हूं कई प्लानिंग
घर-बाहर की जिम्मेदारियां निभाते
कभी-कभी महीनों बीत जाते हैं
खुद से बातें किये, सोचे हुए
लेकिन मैं खुश हूं, क्योंकि कायम है
मेरी पहचान, मैंने मिटने नहीं दिया है
उस अस्तित्व को जो मुझे कराता है
एहसास मेरे जिंदा होने का
जिसकी अपनी खुशियां हैं
और अपने फैसले भी, जिन्हें
मैं स्वयं गढ़ती हूं, अपने लिए...
रजनीश आनंद
22-02-17

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