शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2017

रेत की तरह फिसलती है जाती है जिंदगी...

अजीब है जिंदगी
मैं जितना सहेजना चाहती हूं
रेत की तरह फिसलती जाती है
मेरी हाथों से
ऐसा नहीं कि मुझे मोहब्बत नहीं जिंदगी से
लेकिन मुझसे हो जाती हैं कुछ गलतियां
भय और आशंका के बीच ऐसा महसूस होता है
मानो जिंदगी अनदेखी कर रही है मेरी
उपेक्षा की भावना घर कर जाती है
मैं जिंदगी को समझा नहीं पाती अपनी बातें
मैं चाहती हूं कि जिंदगी खुशनुमा हो
इस चाह में पकड़ना चाहती हूं
उसे प्रेम से
लेकिन उसे घुटन महसूस होती है
मैं तो बस उसके सीने से लगकर
कहना चाहती थी तुम साथ रहो मेरे
क्योंकि तुम बिन
सूरज की ऊष्मा नहीं होती महसूस
हवा की शीतलता, मन को नहीं देती शीतलता
जिंदगी का हर व्यंजन हो जाता है बेस्वाद
लेकिन शायद मेरा तरीका गलत है
तभी तो जिंदगी रूठ गयी है मुझसे
तो क्या दफन हो जायेंगे मेरे सारे ख्वाब
जो देखे हैं मैंने जिंदगी की आंखों में?
नहीं-नहीं ऐसा ना कर ‘ओ जिंदगी’!
गुजारिश है सुन लो मेरी बात
मैंने जो भी आरोप लगाये तुमपर
वह दुर्भावनावश नहीं हैं
बस इसके मूल में तुमसे प्रेम ही है
हां, लेकिन अब समझ गयी हूं मैं
जिंदगी को संवारने के लिए प्रेम काफी नहीं
कई और चीजें भी हैं, हुनर भी हैं
जो सिखा देगी जिंदगी मुझे...

रजनीश आनंद
18-02-17

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