शनिवार, 4 फ़रवरी 2017

मैं नहीं छिनने दूंगी अपनी पहचान...


ए सुनो पितृसत्तामक समाज
मैं तुमसे पूछना चाहती हूं एक सवाल?
क्यों मेरी पहचान छिनना चाहते हो तुम?
मैंने तो तुमसे कभी नहीं कहा
भूल जाओ, अपनी जड़ों को
मां-बाप, परिजनों को
उन गलियों को जहां हम जीते हैं
अपना बचपन, जहां होती है जिंदगी जवां
कैसे भूलूं मैं मां की लोरियों को
पापा के लाड़ को,
भैया-दीदी, दोस्तों के साथ की मस्ती को
मैं तो अपनी जड़ों से बिछड़कर
लहलहाती हूं तुम्हारे आंगन में
हां सही है मेरा नाम जुड़ा है तुमसे
संग कटेंगे अब जीवन के शेष अध्याय
लेकिन इसके माने ये तो नहीं
कि तुमसे जुड़ते ही जीवन की किताब के
मिट गये सारे पुराने पन्ने.
इस समाज ने हमेशा छिनी औरतों से उसकी पहचान
लेकिन मैं अपनी मां की तरह
नहीं करूंगी त्याग, नहीं फटने दूंगी
अपने जीवन से प्रारंभिक पन्नों को
तुम मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अध्याय हो
किंतु मेरी बुनियाद प्रारंभिक पन्ने हैं
उन पन्नों के बिना गिर जायेगी
मेरी जीवनरूपी इमारत
इसलिए मैं सफल नहीं होने दूंगी
इस साजिश को,
मैं तुम्हारे साथ हूं खड़ी
लेकिन तब ही, जब तुम
स्वीकारो मेरी पहचान को
क्योंकि मैंने तो तुमसे
कभी नहीं छिनी तुम्हारी पहचान...
रजनीश आनंद
04-02-17

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