सोमवार, 20 फ़रवरी 2017

... रात की खामोशी कलरव में बदल गयी

मेरी बोलती रातें अचानक
यूं खामोश हुईं कि उसकी
आह तक नहीं पहुंच पा रही थी मुझतक
मैं तरस गयी थी उसकी एक हां सुनने को
लेकिन उसने इस कदर अलग किया था
खुद को मुझसे कि चाहकर भी
जकड़ ना पायी मैं उसे, खामोशी के साथ
आंखों में सारी रात गयी.
अहले सुबह जब मैंने खोला घर का दरवाजा
चांद को चमकते देखा आंगन में
एक उम्मीद सी जागी, लगा अभी बहुत कुछ है शेष
तभी फागुनी बयार ने हल्के से छुआ मुझे
जैसे दे गया हो किसी का संदेश
लेकिन मन को भरोसा ना हुआ
सुबह का अखबार हाथ में लिये
 मैं चली आयी कमरे में
रोजमर्रा के काम तो निपटाती गयी मैं
लेकिन रात की खामोशी,
मन में वाचाल थी, जो अंदर से तोड़ रही थी मुझे
सुबह की पहली चाय की प्याली को उठा
ज्यों होंठों से लगाया, वो फीकी चाय
करा गयी मुझमें किसी की उपस्थिति
उस उपस्थिति को कस के जकड़ा मैंने
मन को समझाया, इंतजार कर सब ठीक होगा
मंजिल से दूर नहीं तू पास है बिलकुल
इस सकारात्मकता को मन में लिये
भारी कदमों से मैं चली थी आफिस की ओर
तभी मेरे फोन की घंटी कुछ यूं बजी
कि रात की खामोशी कलरव में बदल गयी
मन चहक उठा, नयन बरस गये
क्योंकि मजबूती के साथ खड़ी थी ‘जिंदगी’...

रजनीश आनंद
21-02-17

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