शनिवार, 28 अक्तूबर 2017

शब्द भेदते हैं मुझे...

शब्द चुभते हैं मुझे
घाव कर जाते हैं
कोशिश करती हूं
बच निकलने की
लेकिन पीछा करते हैं
मधुमक्खी की तरह
डंक मारते हैं
चीखती हूं मैं
बस करो अब और नहीं
लेकिन वर्णमाला के सारे
अक्षर जैसे दुश्मन बने
कान बंद करूं तब भी
शब्दों का स्वर तीक्ष्ण
भेदते हैं तनमन
तमाम उपमाओं से विभूषित
क्योंकि मैं एक औरत
हाड़ मांस की जिंदा इंसान
लेकिन स्व निर्णयसे वंचित
शब्दों के जाल में उलझी
मर्यादा की टोकरी ढोती
फिर भी शब्द भेदते हैं मुझे...

रजनीश आनंद
28-10-17

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