रविवार, 29 अक्तूबर 2017

खुल गयी दुपट्टे की गांठ...


ओह!! यह क्या हुआ?
कैसी खुल गयी यह गांठ
मन ने पूछा मुझसे, यह सवाल
जवाब तो सच में नहीं जानती
क्योंंकि कसकर बांधा था
मैंने अपनी स्वाभाविक मुस्कान को
अपने प्रिय दुपट्टे में और
जब बांध रही थी गांठ
तो बहुत रोई थी मैं, तो
क्या आंसुओं ने सींच दी
मुस्कान की खेती को
तभी तो अंकुरित हो यह
फूट पड़ी है मेरे दुपट्टे से
बिना मुखौटे वाली हंसी
बेपरवाह, उन्मुक्त, जोशीली
इतने दिनों बाद जब देखा इसे
तो आइने के सामने खड़े हो
मैंने चस्पां किया इसे होंठों पर
और खुद से किया एक वादा
अब कोई गांठ नहीं बाधूंगी...

रजनीश आनंद
29-10-17

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