बुधवार, 18 अक्तूबर 2017

इतराकर चलने को जी चाहता है...

ना आज चांदनी रात
ना मैं चौदहवीं का चांद
ना हाथों में हाथ किसी का
ना पैरों में सोने की पाजेब
फिर भी ना जानें क्यों
आज इतराकर चलने को
जी मचल रहा है ...
ना पीने की लत, ना पी रखी है
ना लगा सोलहवां साल
ना कसीदे पढ़ें किसी ने
ना छुटपन की सखी मिली
फिर भी ना जानें क्यों
आज इतराकर चलने को जी...
हां, एक बात हुई अनहोनी सी
असर उसका तो नहीं है?
हां, मेरी रूह तक पहुंचे तुम
कानों में घुली तुम्हारी हंसी
आंखों में बसा साथ तुम्हारा
तनमन में अपनापन तुम्हारा
तभी तो आज इतराकर
चलने को जी मचल रहा
और मैं बेफ्रिक तुम्हारी ऊर्जा से भरपूर
अमावस की रात को पूनम बनाती
बिना तुम्हारे, फिर भी साथ तुम्हारे
तुम से लिपटती तुममें सिमटती
तब तो आज इतराकर चलने को
जी मचल रहा मेरा हर पल हर दिन...

रजनीश आनंद
18-10-17

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें