बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

सपनों की किताब

मैंने छुपाकर रखी थी सबसे
अपने सपनों की किताब
जिसके पन्नों पर बिखरे थे
मेरे कई मासूम सपने
चांद को मुट्ठी में भींचने के नहीं
सूरज से आंख लड़ाने के ख्वाब
स्थिति-परिस्थिति ने तोड़ा मुझे
कभी-कभार यह ख्याल भी
चस्पां हुआ कि फेंक दूं यह किताब
आसार नहींं दिख रहे, सपने पूरे होने के
औरत होकर इतने बड़े सपने देखने की जुर्रत!
औकात में रहो का व्यंग्य भी सहा
टूटकर छोड़ दिया था सपने देखना
सोचा था अबकी दीवाली
सिरहाने से निकाल फेंक दूंगी रद्दी संग
इस ख्याल ने पलकें गीली की
तो जी चाहा एकबार सिसक लूं
उस किताब को सीने से लगाकर
खोली जो किताब, दंग थी मैं
जिन सपनों को दफन किया था
सब जीवित थे नन्हें पौधों की तरह
जीवन के प्रति मेरी जिजीविषा ने
खाद पानी दिया था इन्हें
नन्हें पौधों को मारने की नहीं
अब उन्हें पेड़ बनाने का समय था
और मैं समझौते के मूड में
बिल्कुल नहींं थी, बिल्कुल भी नहीं...

रजनीश आनंद
05-10-17

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