शनिवार, 11 जून 2016

क्या यह सपना होगा सच?

क्या मेरा रोम-रोम जी पायेगा तुम्हें?
सुबह से शाम तक खोई रहती हूं तुम में
भीड़ में अकेला कर दिया है तुमने
लेकिन मादक है यह अकेलापन
क्योंकि नस-नस में मौजूद हो तुम
चाह तो है कि इस मिट्टी के शरीर के
कण-कण को तृप्त कर दो तुम
ताकि तन-मन पर हो सिर्फ छाप तुम्हारी
जब पाकर प्रेम तुम्हारा
तेज हो जाये सांसें मेरी और फिर
कसती जायें बांहें तुम्हारी और
फिर बेसुध होकर पड़ी रहूं तुम्हारी बांहों में
तब हम दोनों हों बिलकुल मौन
जानते हो प्रिये
ऐसा अहसास होता है मुझे
जैसे तुम्हारी बांहें सिर्फ मुझे ही आगोश में लेने के लिए हैं
और वह सिर्फ मैं ही हूं जिसे मिल सकता है तुम्हारा प्रेम
क्या यह सपना होगा सच?
रजनीश आनंद
11-06-16

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