बुधवार, 8 जून 2016

गोरैया

सूरज की पहली किरण जब धरती को छूकर मुस्कुराती है
और उसके स्पर्श से कमल खिल उठते हैं
तब धरती की ऐसी छवि देख मुझे भी खिलखिलाने का मन करता है
चाहती हूं गोरैये की तरह चहक कर मैं इधर-उधर उड़ती फिरूं
लेकिन तभी कुछ सवाल घेर लेते हैं मुझे
नहीं मैं सूरज के स्पर्श से आनंदित नहीं हो सकती
क्योंकि मैं एक औरत हूं, पाप-पुण्य का सारा हिसाब मेरे खाते में है
लेकिन मैंने तो रिश्तों को जीने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी
फिर क्यों मर गया हमारा रिश्ता?
इस मृत रिश्ते का शव मेरे कांधे पर ही क्यों?
तुम बेपरवाह होकर आनंदित रहो और मैं....?
लेकिन अब नहीं मेरा अंतस मुझे झकझोर रहा है
कहता है खुशियों से मुंह मत मोड़ो
जो मिलते हैं उन्हें समेट लो
उठो गोरैये की तरह तिनका बिनो और मेहनत करो
आशियाने को संवारने में
क्योंकि हमेशा आंधी नहीं आती
और गर आती भी है
तो वह डर कर घोंसला बनाना तो नहीं छोड़ती...
रजनीश आनंद
08-06-16


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