मैं औरत हूं, लेकिन
बार-बार होता है एहसास
मात्र देह होने का
आईने के सामने खड़े होकर
जब भी टटोला है खुद को
साफ उभर आयीं, वो वहशी नजरें
जो बचपन से आज तक
मुझे लील जाने को आतुर थीं
जिन्होंने बार-बार कराया मुझे
मात्र देह होने का एहसास
घर के परिचित, जो मां के सामने
पुचकारते थे मुझे, वही
मां के जाते ही, खूंखार लगने लगते थे
उनकी तेज होतीं सांसें, आज भी
डरा जातीं हैं मुझे
मां के जाते ही वे जकड़ना चाहते थे मुझे
अपनी वासना के जाल में
मैं भागकर छुप जाती थी मां के आंचल में
ऐसी ललचाती नजरों से कभी नहीं बच पायी मैं
घर-बाहर हर जगह मौजूद हैं ऐसी नजरें
तभी तो हर शाम जब आफिस से घर आती हूं
ऐसी घूरती, निगलने को आतुर नजरों से भिड़कर
औरत नहीं मात्र देह होने का
एहसास घर कर जाता है मन में...
रजनीश आनंद
23-01-17
बार-बार होता है एहसास
मात्र देह होने का
आईने के सामने खड़े होकर
जब भी टटोला है खुद को
साफ उभर आयीं, वो वहशी नजरें
जो बचपन से आज तक
मुझे लील जाने को आतुर थीं
जिन्होंने बार-बार कराया मुझे
मात्र देह होने का एहसास
घर के परिचित, जो मां के सामने
पुचकारते थे मुझे, वही
मां के जाते ही, खूंखार लगने लगते थे
उनकी तेज होतीं सांसें, आज भी
डरा जातीं हैं मुझे
मां के जाते ही वे जकड़ना चाहते थे मुझे
अपनी वासना के जाल में
मैं भागकर छुप जाती थी मां के आंचल में
ऐसी ललचाती नजरों से कभी नहीं बच पायी मैं
घर-बाहर हर जगह मौजूद हैं ऐसी नजरें
तभी तो हर शाम जब आफिस से घर आती हूं
ऐसी घूरती, निगलने को आतुर नजरों से भिड़कर
औरत नहीं मात्र देह होने का
एहसास घर कर जाता है मन में...
रजनीश आनंद
23-01-17
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