शनिवार, 29 अक्तूबर 2016

दीपावली की रात

जानते हो प्रिये तुम
दीपावली की रात
मैंने हर साल जलाये दीये
किंतु छटा नहीं वह तम
जिसने जकड़ रखा था
मुझे अपनी गिरफ्त में
मैंं दीये बढ़ाती गयी
लेकिन
कम ना हुई उसकी जकड़न
अंधेरे से डरती हूं मैं
मां यह बात जानती है
इसलिए मेरे साथ वो भी
लगातार चलाती रही दीये
लेकिन नहीं छटा अंधेरा
फिर एक दिन दो नन्हें हाथों ने
मेरे लिए जलाए दीये
उसकी दो चमकीली आंखें
किसी भी अंधेरे को चीर सकती थी
आसरा हो गया मुझे
उस अंधेरे से सामना करने का
पर अबकी दीवाली तो
मैंने अभी दीये भी नहीं जलाए
और रौशन है घर-आंगन
जानते हो क्यों?
क्योंकि
तुम्हारे प्रेम का दीया
मैंने जला रखा है मन में
अब नहीं लगता डर
मुझे किसी अंधेरे से
क्योंकि तुम हो साथ मेरे
रजनीश आनंद
29-10-16

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