गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016

मौन...

कुछ रिश्तों की किस्मत
मौन में सिमट जाती है
हावी हो जाता है
हर भावना पर मौन
शेष कुछ नहीं रहता
तब उठते हैं कुछ सवाल
मन में शिद्दत से
जो खिलखिलाहट थी कभी
क्या वो बनावटी थी?
शायद हां, वरना तो
रिसते जख्मों से भी
आह निकलती है
फिर क्यों हम बुनते हैं
ऐसे रिश्ते जिसमें
 ना तो ‘आह’ है ना ‘अहा’!
है तो सिर्फ और सिर्फ
मौन, मौन और मौन
रजनीश आनंद
20-10-16

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