रविवार, 30 अक्तूबर 2016

रिसता दर्द

तुमने कभी सोचा प्रिये?
क्या बितती है मुझपर
तुम्हारी चाह में
हर पल रिसता है
एक दर्द सीने में
मैं वर्णन नहीं कर सकती
उस एहसास का
देखो मेरी आंखों में
तुम्हें स्पष्ट दिखेगी
असीमित इंतजार की तड़प
और
जब तुम कसते हो
मुझे बांहों में तब,
जब वायु का प्रवेश भी
हो जाता है निषेध
मुझे मिलती है प्राणवायु
असीम ऊर्जा से परिपूर्ण
और मैं अपने अधरों से
लिख देती हूं तुम्हारे वक्ष पर
हमारी प्रेमकथा
और जब तुम अपनी अंगुलियां
फेरते हो मेरे केशों में तो
मैं जकड़ती जाती हूं तुम्हें
ताकि एक हो जायें हम
थोड़ी क्रूर होती पकड़
लेकिन सुखद
जब बेसुध सी हो जाती हूं मैं
तब अहसास होता है
मेरा जिस्म मेरा नहीं
सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी चाह है
जिसका हर रिसता दर्द
मिटता है तुम्हारी बांहों में आकर

रजनीश आनंद
31-10-16

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