शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2016

वो गांठ...

सुनो ना प्रिये
एक बात बताऊं तुम्हें
कुछ दिनों से मेरे
आंचल में कुछ बंधा सा है
मैं रोज देखती हूं उसे
सोचती हूं क्या है इसके अंदर
फिर जीवन की उलझनों में उलझी
देख नहीं पाती उसे
लेकिन मेरा ध्यान है उसपर
अब तो आदत सी हो गयी है उस गांठ की
जैसे जीवन में शामिल कोई
जब अकेली होतीं हूं, तो थाम लेती हूं, उस गांठ को,
भान होता है अकेलापन मिट गया
जब उदास होता है मन और
भींग जाती हैं पलकें मेरी
तो उसी गांठ से पोंछ लेती हूं
अपने छलकते आंसुओं को
लगता है जैसे कहा, उस गांठ ने
मत रोओ, मैं साथ हूं ना
खुश होती हूं तो, दबा लेती हूं उसे दांतों से
कभी तो चूम भी लेती हूं खुशी से
लेकिन जानते हो आज क्या हुआ?
आज जब मैं अपने बागीचे में गयी
तो सहसा मेरा आंचल उलझ गया
गुलाब की झाड़ी से और
खुल गयी वो गांठ...
मेरा जी धक से कर गया,अब क्या!!!
लेकिन जानते हो क्या निकला उस गांठ से?
तुम्हारा प्यार, जिसे संजो कर रखा था
मैंने अपने आंचल में
अहा! मैंने एक बार फिर से समेट लिया है
उसे अपने आंचल में और बांध ली है गांठ
जिसे सीने से चिपकाकर जीना है मुझे ताउम्र.

रजनीश आनंद
28-10-16

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