मंगलवार, 8 नवंबर 2016

वो बंधन...

जीवन के सफर में मैं और तुम
चले तो थे प्रेमी -हमसफर बनकर
लेकिन, कुछ ही समय में
प्रेम कहीं खो गया और
हावी हुआ स्वार्थ, रिश्तों पर
अहसास हुआ मुझे
खोखला है हमारा रिश्ता
जहां प्रेम तुम्हारे लिए
महज किताबी बातें थीं
कोई मोल नहीं था तुम्हारे लिए
मेरी भावनाओं का
तुम यह बात कभी नहीं समझ पाये
प्रेम सबकुछ सहता है
किंतु उपेक्षा नहीं
आखिर मैं कबतक उपेक्षित रहती
कबतक अपने स्वाभिमान को अपमानित करती
यह सोच मैं ज्यों गयी तोड़ने उस बंधन को
जिसने बांध रखा था मुझे तुमसे
मैंने देखा तुम तो कब के तोड़ गये थे
वो बंधन!!!
मैं तो महज लाश ढो रही थी रिश्तों की...

रजनीश आनंद
08-11-16

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