बुधवार, 16 नवंबर 2016

मैं बन जाना चाहती हूं ...

प्रिये मन में है एक बात
बेसब्र हूं, तुमसे कहने को
ज्ञात है मुझे, सीमित है
हमदोनों के प्रारब्ध में मिलन
लेकिन कोई दुख नहीं
मैं हर दिन, हर पल
तुम्हारे लिए जीना चाहती हूं
इसलिए तो मैं बन जाना चाहती हूं,
सूर्योदय की लालिमा
ताकि अहले सुबह, जब जागो तुम
बसा लो उसके अनुपम सौंदर्य को अपनी आंखों में
मैं बन जाना चाहती हूं,
सरदी की धूप
जिसका ताप तुम्हें सुकून दे
तुमको कर दे ऊर्जा से ओतप्रोत
मैं बन जाना चाहती हूं
शीतल मंद वसंती हवा
ताकि जब बहाव हो मेरा, तो चूम लूं
तुम्हारे तन को और
तुम्हें हो मेरे आसपास होने का एहसास
मैं बन जाना चाहती हूं
तुम्हारे बागीचे की फूल
जिसे तुम प्रेमवश कभी-कभी दे दो अपना स्पर्शसुख
मैं बन जाना चाहती हूं
तुम्हारे आंगन की तुलसी
जिसे तुम मान दो और
मैं बनाया जाऊं तुम्हारे लिए शुभकारी
मैं बन जाता चाहती हूं
तुम्हारे आंगन की प्यारी गोरैया
जिसका आंगन में फुदकना, तुम्हें प्रिय हो
और जिसके घोंसले और अंडे को
तुम सहेजकर रखते हो
मैं बन जाना चाहती हूं,
चांद की नहीं, तुम्हारी चांदनी
जिसकी दूधिया रौशनी तुम्हारे मार्ग के हर तिमिर को दूर करे
और तुम सच कर सको अपने हर सपने को

रजनीश आनंद
17-11-16

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