मंगलवार, 1 नवंबर 2016

तुम्हारी इच्छा और मैं...

तुम्हें यह झूठ
प्रतीत हो सकता है
पर
सच कहती हूं मैं
मेरी हर इच्छा
तुमसे जुड़ी है
क्या तुम्हें भी कभी
ऐसा महसूस हुआ है?
जानते हो प्रिये जब
स्नान के बाद मैं
कपड़े पहनना चाहती हूं
तो
सहसा उस रंग के कपड़े तक
मेरे हाथ चले जाते हैं
जो तुम्हें प्रिय है
जब खुद को संवारने
आइने के सम्मुख होती हूं
तो वह सब कर बैठती हूं
जो है तुम्हारी पसंद
माथे पर लाल बिंदी
मैं बरबस लगा लेती हूं
क्यों?मुझे पता नहीं
पूरा दिन तुमसे बात करती हूं
समझना चाहती हूं तुम्हें
तुम्हारी पसंद-नापसंद
लेकिन आसान नहीं है
तुम्हें पढ़ पाना
क्योंकि विस्तृत है तुम्हारा व्यक्तित्व
फिर भी मैं इतना कह सकती हूं
बहुत प्रेम है तुमसे
बाकी चीजें मैं नहीं समझ पाती
रात नींद तो आती है
पर जागती रहती हूं मैं
यह सोच कि कब तुम्हें
मेरी चाह हो
और
तुम मुझसे कहो
आओ प्रिय उदात्त प्रेम के
सागर में हम डूब जायें
तब मैं समर्पित कर दूं
खुद को तुम्हारे लिए
गहरे प्रेम के उस क्षण में
मैं गहरी आवाज में
जो तुम्हें प्रिय है
सिर्फ लेना चाहती हूं
मैं तुम्हारा नाम
उस पल जब चंचल हो
तुम्हारा स्पर्श और
मादक हो हर ध्वनि
मैं बन जाना चाहती हूं
तुम्हारी इच्छा
और जी लेना चाहती हूं
तुम्हारे लिए बस
तुम्हारे लिए...

रजनीश आनंद
02-011-16

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें