शनिवार, 24 दिसंबर 2016

ऊंचाई का डर और मैं

मुझे ऊंचाई से डर लगता था
जब मैं देखती थी ऊपर से नीचे
एक खौफ समा जाता था
नहीं-नहीं मैं ऐसी जगह
नहीं जाना चाहती
जहां हो अकेलापन
हरियाली भी कम हो जाए
घटने लगे हवा
और महसूस हो घुटन
मैं नहीं जाना चाहती
मैं तो जीना चाहती थी
एक आम जिंदगी
एक नीड़ सपनों का
एक चिड़ा एक चिड़िया
लेकिन नहीं मेरे खाते में
तो ये भी नहीं
बस आंसू थे
जिन्हें पोंछना मुझे खुद था
सहसा किसी ने ऊपर से दी आवाज
मैं चल पड़ी ऊंचाई की ओर
हां , अब नहीं लगता मुझे
ऊंचाई से डर क्योंकि
मैंने शिखर से कर ली दोस्ती है
वहां कुछ बर्फ हैं जो पिघलेंगे
हरी घास दिखेगी
वो आयेगा जिसकी
प्रेरणा से मैं ऊंचाई तक पहुंची हूं
थाम कर उसका हाथ
ज्यों देखा मैंने नीचे
ऊंचाई से बहुत हसीन थी दुनिया
इतनी मनोरम होती है ऊंचाई
ये मैंने अब था जाना

रजनीश आनंद
24-12-16

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