शुक्रवार, 9 दिसंबर 2016

औरत हूं लेकिन अब त्याग नहीं करूंगी मैं...

भागते-भागते सांस उखड़ रहे थे मेरे
पांव भी साथ नहीं दे रहे थे, देखा तो
पैर के छाले फट गये थे, उनसे अब
 खून भी रिसने लगा था
मैंने निश्चय किया, बस अब और नहीं
कब तक अनवरत मैं भागती रहूं
तुम्हारे पीछे, इस आस में कि
तुम कभी तो दोगे मेरे प्रेम को सम्मान
कभी तो तुम्हें लगेगा, मैं गैरजरूरी नहीं
हाशिये पर जीवन जीते-जीते ऊब गयी हूं
ऐसी नहीं थी मेरी प्रकृति
मेरे अंदर की आग को यूं बुझने नहीं दूंगी
मैं मिटने नहीं दूंगी अपना अस्तित्व
सही है लिखा है तुम्हारा नाम मेरे भाल पर
लेकिन तुम्हारी उपेक्षा ने धूल जमा दी है इसपर
जो रगड़ने से भी नहीं होगी साफ
अब तो कुछ पढ़ा भी नहीं जाता
सिर्फ कुछ लिखा होने का एहसास मात्र है
लेकिन मैं  कब तक यूं ही जीती रहूं
क्योंकि मैं एक औरत हूं, इसलिए इंतजार पर मजबूर रहूं
जबकि मुझे पता है कोई नहीं आने वाला
तुम तो कब का मीलों आगे चले गये
तुम मर्द हो, तुम्हें आजादी है
जब चाहो मेरा इस्तेमाल करो
इंसान से वस्तु बनाकर छोड़ दिया
पहचान खोते अपने चेहरे को मैंने देखा जो आईने में
उम्र से पहले चेहरे पर आयीं लकीरें साफ दिखीं
नहीं-नहीं और नहीं, अब नहीं घुटूंगी मैं
मुझे अपना दमकता चेहरा वापस चाहिए
आंखों में नये सपने चाहिए, जिन्हें जीना है मुझे
जिंदगी बहुत खूबसूरत है, जो दोबारा नहीं मिलेगी
मेरे पास जीने और खुश रहने की कई वजहें हैं
जो हाथ थाम कर मुझे सीने से लगाने के लिए बेचैन हैं
तो हाशिये पर नहीं अब मुखपृष्ठ पर जीना है मुझे
औरत हूं लेकिन अब और त्याग नहीं करूंगी मैं
कुछ पल अपने लिये भी जीऊंगी मैं...

रजनीश आनंद
09-12-16

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