शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

नदी की तिश्नगी

जब भी देखती हूं
नदी की तड़प
सागर से मिलने को
वह पहाड़ का सीना चीर
उदात्त प्रेमभाव में उफनती
आड़े-तिरछे मार्गों से गुजरती
बेकल बहती है
तिश्नगी है उसे
सागर की बांहों में समा जाने की
कई जगह पर बांधी भी जाती है वो
वेग प्रभावित होता है
किंतु रूकती नहीं
सागर से मिले बिना रूकना
यानी समाप्त हो जाना नदी का
लेकिन जब वो समा जाती है
अपने प्रियतम के आगोश में
जब विलीन हो जाती है वो
तब उसका अस्तित्व खोता नहीं
समाहित होता है सागर संग
तब मन में उठता है एक सवाल
क्या प्रेम परिभाषित हो सकता है?
रजनीश आनंद
16-12-2016

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