सोमवार, 5 दिसंबर 2016

धर्मपत्नी...


हां मैं तुम्हारी धर्मपत्नी हूं
अर्धांगिनी के तमगे के साथ
अग्नि के सात फेरे ले मैं बनी थी
तुम्हारी जीवनसंगिनी
आंखों में थे अनगिनत ख्वाब
जो हकीकत ना बन पाये कभी
हां, आंसुओं का आशियाना जरूर बने
जीवनसाथी तो थे तुम मेरे
लेकिन कभी अहसास,ना हुआ साथ
हर राह पर अकेली ही चली मैं
अपने अश्रु खुद ही सहेजे
बेमानी थे विवाह के सात वचन
अर्धांगिनी तो गूढ़ अर्थ सहेजे है
साथी भी ना बनाया तुमने
हां कुछ पल का भ्रम जरूर पुष्पित हुआ
लेकिन कभी भी चांदनी रात में
तुम संग आंखें ना हुईं वाचाल
सिर्फ मशीनी देहप्रेम नहीं होती
किसी औरत की चाह!
ये बताना चाहती हूं मैं तुम्हें
चूड़ी,बिंदी और सिंदूर नहीं
और भी बहुत कुछ है धर्मपत्नी!!

रजनीश आनंद
05-12-16

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